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Autobiography of a Yogi critical Hindi PDF | योगी कथामृत

Title : योगी की आत्मकथा
Pages : 627
File Magnitude : 158 MB
Author : परमहंस योगानन्द
Category : Biography
Language : Hindi
To read : Download PDF
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केवल पढ़ने हेतु : मनुष्य तो वही है जो स्वार्थ के लिए लड़ता न हो। अहंकार में पड़कर अपनी ही टांग हर जगह अड़ाये रखना

और दूसरे साथियों के उसमें से विचारों का भी मूल्य न समझना परस्पर के व्यवहार को चौपट कर देता है। घर और समाज का वही मालिक बु़द्विमान है जो प्रायः हर व्यवहार में अपने साथियों, परिवार वालों तथा अनुगामीयों से सम्पति लेता है। कहा है- "पंच सरीखे कीजै काज, हारे जीते नाहीं लाज"

साथियों से संपत्ति लेकर काम करने से अपनी श्रेष्ठता घटती नहीं। अपितु बढ़ जाती है। अनेक विचारों के मिल जाने पर प्रायः बिगड़ता नहीं। यदि समय से बिगड़ भी जाये तो उसकी हानि केवल व्यवस्थापक के अपने सिर पर नहीं आती। उसमें सब हिस्सेदार हो जाते हैं और परस्पर व्यवहार मधुर बना रहता है।

कई बार मनुष्य से गलती हो जाती है, परन्तु वह अपनी गलती को स्वीकारता नही है इससे भी व्यवहार बिगड़ जाता है। अपनी गलती न मानने के मूल में भी अहंकार ही है। मनुष्य समझता है कि हम अपनी गलती स्वीकार करेंगे तो लोग हमें ही यह हीन समझेंगे, परन्तु यह केवल भूल है। विनम्रता पूर्वक सच्चे हृदय से अपनी गलती स्वीकार लेने वाले पर सबकी श्रद्वा हो जाती है।

अतएव मनुष्य यदि अपना जीवन सुखी बनाना चाहता है, तो उसे चाहिए कि वह भौतिक भोगो को लालच, स्वार्थ की आसक्ति एवं अहम भावना का त्याग करके साथियों में मधुरतम प्रेम का व्यवहार स्थापित करे।

यदि साथी सचमुच बुरा बन जाता है तो व्यवहार नहीं बनता; परन्तु अधिकोशतः परस्पर का व्यवहार इसलिए बिगड़ जाता है कि एक दूसरे को ठीक से समझने में त्रुटि करते हैं। कई बार ऐसा होता है कि कोई व्यक्ती हमारे सुधार के लीए ऐसा शब्द कहता है जो हमें कटु लगता है और हम यह मान लेते हैं कि वह हमारी बुराइयों को देखता रहता है। यद्यपि कहने वाला का हृदय हमारे लिए साफ और सरल होता है।

कई बार हमारा साथी उत्तेजना में आकर सचमुच कटु कह देता है और इस आधार पर हम अपने साथी को अपना दोष-दर्शक, छिद्रान्वेषी और वैरी समझ लेते है; परन्तु वह हमें कटु कहने के तत्काल बाद उस पर घोर पश्चाताप करता है और मन ही मन सोचता है कि मैंने उसको नाहक कटु कहा।

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हम कई बार यह माने रहते हैं कि अमुक व्यक्ति हमसे द्वेष करता है और इसलिए हमें उसके यहां नहीं जाना चाहिए; परन्तु यदि हम उसके यहां चले जाते हैं तो वह हमारी आवभगत करता है, प्रसन्न होता है और पूर्व और पूर्व का धूमिल व्यवहार निखर जाता है।